Friday 24 August 2018

बोलो ना...


बोलो  ना..
क्या वैसे ही जिद करते हो तुम उससे भी आँखे मिलाने की..जैसे मुझसे किया करते थे...
क्या वो भी वैसे ही नजरे चुराती है तुमसे..जैसे मैं चुराया करती थी...

बोलो ना...
क्या वैसै ही फिक्र करते हो तुम उसकी भी...जैसी मेरी किया करते थे...
उन सर्द रातोंमे... वो भी वैसे ही जागती है क्या रातभर फिक्र मे तुम्हारी...जैसे मैं जगा करती थी....

क्या वैसै ही चिढते हो उसे गैरो के साथ देखकर...जैसे मेरे ऊपर चिढा करते थे...
बोलो ना..
क्या वो भी वैसे ही मनाती है तुम्हे रो-रो कर...जैसे मैं मनाया करती थी...

क्या वैसे ही बोल दिया करते हो  उसे भी उसके दर्दमे..."मै हूँ ना"..जैसे मुझे बोला करते थे...
क्या वो भी समेटके अपने सारे गम हँसाती है  तुम्हे...जैसे मैं हँसाया करती थी..
बोलो ना....

क्या  देर रात , वक्त -बेवक्त अब उसे मनाते हो जैसे मुझे मनाया करते थे...
बोलो  ना...
क्या वो भी पिघल जाती है तुम्हारी इश्क भरी बातो मे...वैसेही जैसे  मै पिघल जाया करती थी...

क्या उसे भी बता देते हो ..अपनी वो सारी बाते...सारी गलतीयाँ..जो सिर्फ मुझे बताया करते थे...
क्या वो भी दफना देती है सारे राज तुम्हारे..जैसे मैं दफनाया करती थी...
बोलो ना...

उसके हातो पे सजा है क्या अब वो रंग जो मेरी मेहंदी पर हुआ करता था..
बोलो ना..
क्या ठहर जाती है तुम्हारी नजरे उसके चेहरे पर वैसेही जैसे मेरे चिन के तिल पर ठहर जाती थी...

क्या चूप हो जाते हो उसके सवालोंपे वैसेही...जैसे मेरे सवालों पर सहम जाते थे...
क्या अब उस से करते हो वो आधीसी मोहोब्बत...जो कभी मुझसे किया करते थे...
बोलो ना..

खैर छोडो ये सब बात...
बस इतना बता देना...
क्या याद है वो सहमी हुयी रात...
जब मैनै तुमसे रोते हुये कहाँ था..."बस मुझे कभी भुलना मत"...
और तुमने सांस भी ना लेते जवाब दिया था.."कभी नही"...
क्या भूल गये अब...
बोलो ना....

                                                --  अंतरा ...
                                           (कश्ती सलिम शेख.)